Tuesday, December 6, 2016

ध्रुव-तारे की खोज

जीवन का आधार है सपना 
इनके बिना क्या कोई अपना?
यही मनुज को पंथ दिखाते 
नित-नूतन उत्साह जागते 
इनसे ही प्रेरित हो मानव, श्रृंग दुर्गमों पर चढ़ जाता 
सागर की उत्ताल तरंगों पर अपनी किश्ती लहराता 
यही स्वप्न बन भीषण ज्वाला, मानव का अंतर धधकाते 
नर को कर अधीर-विचलित वे, उसमें नूतन भाव जगाते 
मानव का सौभाग्य अमर की स्वप्न नेत्र में पलते आए 
हों पाँव मनुज के भले धरा पर, स्वप्न स्वर्ग संजोते आए 

जब जीवन के कुरुक्षेत्र में, स्वप्न-सत्य टकराते हैं 
कुछ सपनों की आह निकलती, कुछ दीपित हो जाते हैं 
दीपित सपनों की प्रखर प्रभा, धारा उद्वेलित करती है 
मानव का पथ करके रौशन, नूतन आशाएँ भरती है 
नव भावों से संदीप्त मनुज, दावानल सा बन जाता है 
निज के पथ की प्रत्येक विपद से, हो निर्भय टकराता है 
चक्रवात की महा शक्ति को, मुट्ठी में बाँधा करता है 
जीवन जलधि के प्रत्येक भँवर को, साहिल में बदलता चलता है 
वर्तमान से असंतोष ही, मूल मनुज की चिर उन्नति का 
दीपित सपनों की प्रखर प्रभा पर, मूल मनुज की असंतुष्टि का 

स्वप्न-सत्य के कुरुक्षेत्र में, सत्य विजयी जब होता है 
मानव के सपने मरते हैं, शायद तब वह भी रोता है 
स्वप्न-देव की शर-शय्या पर, नित वह आँहें भरता है 
दुःखी हृदय और रुँधे गले से, प्रभु से पूछा करता है 

जिन सपनों की आयु लघु, क्यों उनको देता जन्म विधाता 
जिन बाणों की धार मंद, क्यों उनको तरकश मिले विधाता 
घोर समर में, जीवन रण में, मानव को छलते यही विधाता 
कर मानव को हीन-दीन, ये उसको करते व्यथित विधाता 
व्यथित हृदय का गंगा-जल है, धोता किसका पाप विधाता 
अपने ही सपनों से कटता, मानव अपने आप विधाता 
------------------
प्रभोवाच  एक स्वप्न जो टूट गया है  तू मुझसे क्यों रूठ गया है  जीवन नहीं पुष्प की बेला  यह संगर है झेल अकेला  जीवन समर अटल है चलता  नहीं किसी के रोके रुकता  मानव तेरी यही कहानी  विपदाओं से हार न मानी  आसमान में कितने तारे  यूँ तो सुन्दर लगते सारे  पर सब सीमित काल-खण्ड से लगते शापित स्वार्थ-दण्ड से  काल-खण्ड के परे जो पहुँचा  ध्रुव-तारा बन वह ही चमका  आसमान में कितने तारे  टिमटिम-टिमटिम करते सारे  पर नाविक का कौन सहारा  एकमात्र वह ध्रुव का तारा  सदा-सर्वदा अविचल रहता  मानव को पथ इंगित करता  जब तक जीवन में ध्रुव तारा  नहीं मनुज! तू समर में हारा  सत्य बोल, बचपन का सपना  नहीं लगे, क्या आज बचपना?  क्या उस सपने को आधार बना तू  जी सकता है जीवन अपना? जो सपना हो तुझ तक सीमित,  मानव! वह काल-खण्ड से परिमित  स्वार्थ-हेतु तू सपने बुनता  फिर उनमें से कुछ को चुनता  यूँ वह जीवन बुरा नहीं है  पर स्वार्थ-दण्ड का स्वप्न वही है  जीवन के निश्चित मौकों पर, मानव देखा करता सपने होते उनमें कुछ बेगाने, कुछ मानव के होते अपने  वे मौके अब बीत गए हैं  कुछ सपने अब मीत बने हैं  उन मित्रों को परखो मानव, शायद मिले तुम्हे ध्रुव-तारा  व्यथित हृदय की मनोदशा में, मनुज! वहीं हैं अटल सहारा  -हिमालयपुत्र